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सुस॑मिद्धाय शो॒चिषे॑ घृ॒तं ती॒व्रं जु॑होतन। अ॒ग्नये॑ जा॒तवे॑दसे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

susamiddhāya śociṣe ghṛtaṁ tīvraṁ juhotana | agnaye jātavedase ||

पद पाठ

सुऽस॑मिद्धाय। शो॒चिषे॑। घृ॒तम्। ती॒व्रम्। जु॒हो॒त॒न॒। अ॒ग्नये॑। जा॒तऽवे॑दसे ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:5» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले पञ्चम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग (जातवेदसे) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान (सुसमिद्धाय) उत्तम प्रकार प्रदीप्त और (शोचिषे) पवित्र करनेवाले (अग्नये) अग्नि के लिये (तीव्रम्) उत्तम प्रकार शुद्ध अर्थात् साफ किये (घृतम्) घृत का (जुहोतन) होम करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो अध्यापक जन पवित्र अन्तःकरणवालों में विद्या का संस्कार डालते हैं, वे सूर्य्य के सदृश प्रताप से युक्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं जातवेदसे सुसमिद्धाय शोचिषेऽग्नये तीव्रं घृतं जुहोतन ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुसमिद्धाय) सुप्रदीप्ताय (शोचिषे) पवित्रकराय (घृतम्) आज्यम् (तीव्रम्) सुशोधितम् (जुहोतन) (अग्नये) पावकाय (जातवेदसे) जातेषु विद्यमानाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - येऽध्यापकाः शुद्धान्तःकरणेषु विद्यां वपन्ति ते सूर्य इव प्रतापयुक्ता भवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान, राजा, गृहस्थाश्रम, राजा, प्रजा व विद्याग्रहण यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे अध्यापक पवित्र अन्तःकरणाच्या लोकांना विद्येचे संस्कार देतात ते सूर्याप्रमाणे पराक्रमी होतात. ॥ १ ॥